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आँख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो

 आँख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो ~राहत इंदौरी


आँख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो

ज़िंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो


राह के पत्थर से बढ़ कर कुछ नहीं हैं मंज़िलें

रास्ते आवाज़ देते हैं सफ़र जारी रखो


एक ही नद्दी के हैं ये दो किनारे दोस्तो

दोस्ताना ज़िंदगी से मौत से यारी रखो


आते जाते पल ये कहते हैं हमारे कान में

कूच का ऐलान होने को है तय्यारी रखो


ये ज़रूरी है कि आँखों का भरम क़ाएम रहे

नींद रखो या न रखो ख़्वाब मेयारी रखो ~ राहत इंदौरी


चूल्‍हा मिट्टी का तालाब ठाकुर का

 चूल्‍हा मिट्टी का तालाब ठाकुर का



चूल्‍हा मिट्टी का 

मिट्टी तालाब की

 तालाब ठाकुर का

 भूख रोटी की 

रोटी बाजरे की 

बाजरा खेत का

 खेत ठाकुर का 

बैल ठाकुर का 

हल ठाकुर का

 हल की मूठ पर हथेली अपनी

 फ़सल ठाकुर की 

कुआँ ठाकुर का 

पानी ठाकुर का

 खेत-खलिहान ठाकुर के 

गली-मुहल्‍ले ठाकुर के

 फिर अपना क्‍या ? गाँव ? शहर ? देश ?''

 - ओम प्रकाश वाल्मीकि जी |

कविता कादम्बरी - मेरे बेटे, कभी इतने ऊँचे मत होना....

 

कविता कादम्बरी - मेरे बेटे, कभी इतने ऊँचे मत होना



मेरे बेटे

कभी इतने ऊँचे मत होना

कि कंधे पर सिर रखकर कोई रोना चाहे तो

उसे लगानी पड़े सीढ़ियाँ


न कभी इतने बुद्धिजीवी

कि मेहनतकशों के रंग से अलग हो जाए तुम्हारा रंग


इतने इज़्ज़तदार भी न होना

कि मुँह के बल गिरो तो आँखें चुराकर उठो


न इतने तमीज़दार ही

कि बड़े लोगों की नाफ़रमानी न कर सको कभी


इतने सभ्य भी मत होना

कि छत पर प्रेम करते कबूतरों का जोड़ा तुम्हें अश्लील लगने लगे

और कंकड़ मारकर उड़ा दो उन्हें बच्चों के सामने से


न इतने सुथरे ही होना

कि मेहनत से कमाए गए कॉलर का मैल छुपाते फिरो महफ़िल में


इतने धार्मिक मत होना

कि ईश्वर को बचाने के लिए इंसान पर उठ जाए तुम्हारा हाथ


न कभी इतने देशभक्त

कि किसी घायल को उठाने को झंडा ज़मीन पर न रख सको


कभी इतने स्थायी मत होना

कि कोई लड़खड़ाए तो अनजाने ही फूट पड़े हँसी


और न कभी इतने भरे-पूरे

कि किसी का प्रेम में बिलखना

और भूख से मर जाना लगने लगे गल्प

हम ने कब चाहा कि वो शख़्स हमारा हो जाए.. yasir khan

 हम ने कब चाहा कि वो शख़्स हमारा हो जाए



हम ने कब चाहा कि वो शख़्स हमारा हो जाए
इतना दिख जाए कि आँखों का गुज़ारा हो जाए

हम जिसे पास बिठा लें वो बिछड़ जाता है
तुम जिसे हाथ लगा दो वो तुम्हारा हो जाए

तुम को लगता है कि तुम जीत गए हो मुझ से
है यही बात तो फिर खेल दोबारा हो जाए

है मोहब्बत भी अजब तर्ज़-ए-तिजारत कि यहाँ
हर दुकाँ-दार ये चाहे कि ख़सारा हो जाए

                                                        -Yasir khan

Teri aankhon ke siwa duniya main rakha kya hai ||Faiz Ahmed faiz

 Teri aankhon ke siwa duniya main rakha kya hai


Teri surat se hai alam mein baharon ko sabaat,

teri aankhon ke siwa duniya main rakha kya hai. -Faiz Ahmed Faiz.

कभी ख़ुद पे, कभी हालात पे रोना आया .. साहिर लुधियानवी

कभी ख़ुद पे, कभी हालात पे रोना आया।। साहिर लुधियानवी


कभी ख़ुद पे, कभी हालात पे रोना आया
बात निकली, तो हर इक बात पे रोना आया

हम तो समझे थे कि हम भूल गए हैं उनको
क्या हुआ आज, ये किस बात पे रोना आया

किस लिये जीते हैं हम किसके लिये जीते हैं
बारहा ऐसे सवालात पे रोना आया

कौन रोता है किसी और की ख़ातिर ऐ दोस्त
सबको अपनी ही किसी बात पे रोना आया- साहिर लुधियानवी

Ham najar bhi uthaye -vishal chauhan

 Ham najar bhi uthaye -vishal chauhan


Ham najar bhi uthaye ,

To jamana ranjish kre,

Vo katl bhi kre 

To koi uff nhi..

                                    -vishal chauhan


जो नहीं हो सके पूर्ण-काम / नागार्जुन



जो नहीं हो सके पूर्ण-काम
मैं उनको करता हूँ प्रणाम ।

कुछ कुण्ठित औ' कुछ लक्ष्य-भ्रष्ट
जिनके अभिमन्त्रित तीर हुए;
रण की समाप्ति के पहले ही
जो वीर रिक्त तूणीर हुए !
उनको प्रणाम !

जो छोटी-सी नैया लेकर
उतरे करने को उदधि-पार;
मन की मन में ही रही¸ स्वयँ
हो गए उसी में निराकार !
उनको प्रणाम !

जो उच्च शिखर की ओर बढ़े
रह-रह नव-नव उत्साह भरे;
पर कुछ ने ले ली हिम-समाधि
कुछ असफल ही नीचे उतरे !
उनको प्रणाम !

एकाकी और अकिंचन हो
जो भू-परिक्रमा को निकले;
हो गए पँगु, प्रति-पद जिनके
इतने अदृष्ट के दाव चले !
उनको प्रणाम !

कृत-कृत नहीं जो हो पाए;
प्रत्युत फाँसी पर गए झूल
कुछ ही दिन बीते हैं¸ फिर भी
यह दुनिया जिनको गई भूल !
उनको प्रणाम !

थी उम्र साधना, पर जिनका
जीवन नाटक दुखान्त हुआ;
या जन्म-काल में सिंह लग्न
पर कुसमय ही देहान्त हुआ !
उनको प्रणाम !

दृढ़ व्रत औ' दुर्दम साहस के
जो उदाहरण थे मूर्ति-मन्त ?
पर निरवधि बन्दी जीवन ने
जिनकी धुन का कर दिया अन्त !
उनको प्रणाम !

जिनकी सेवाएँ अतुलनीय
पर विज्ञापन से रहे दूर
प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके
कर दिए मनोरथ चूर-चूर !
उनको प्रणाम

Achha Aadmi Tha By Rakesh Tiwari

बहुत अच्छा आदमी था
ये बात तुमने कह दी यकीन से
या अंदाज़े पर
अब कुछ ना कुछ तो कहना बनता था ना
उसके जनाजे पर
 नहीं कहते तो जमाने को तुम्हारी अच्छाई पर शक हो जाता
अगर वह सुनता ना तो खुशी के मारे पागल बेशक हो जाता 
खैर ये बताओ कि अच्छा ही था तो
अच्छे पन का हिसाब क्यों नहीं दिया
हफ्ते भर से कुछ पूछ तो रहा था ना वो
कभी सवालों का जवाब क्यों नहीं दिया
वो जब पूछता कि मेरी जिंदगी में गमों के सिवा कुछ बाकी रहेगा या नहीं
और फिर तुम हंसकर कह देते कि
यार तू उसके सिवा कुछ और कहेगा या नहीं
काश के हंसी ठहाके सिलसिले को तोड़ कर देखा होता
काश के जितने बार उसे अलविदा कहा
उसी रास्ते पर रुक के पीछे मुड़कर देखा होता
तो जानते कि तुमसे मिलने के बाद वह कभी घर नहीं गया था
उसके चेहरे से नाराज़गी का असर नहीं गया था
वही पेड़ के सहारे सड़क के किनारे बैठ जाया करता था
आते जाते मुसाफिरों से रूठ जाया करता था
तुम जानते थे ना कि वह हम सब से कुछ दिनों से बड़ा अलग अलग सा दूर सा रहता था
पर क्या यह जानते हो कि अकेले पलंग पर लेटे अपने घर में पंखों दीवारों को घूरता रहता था
कहा तो था उसने कि मिलो, मुलाकातें करनी है
जो किसी और से नहीं कहीं वह तुमसे बातें करनी है
और तुम
ऐसे में जिंदगी कैसे जीनी चाहिए ऐसी बातें फर्जी भेज कर दो चार चुटकुलों के साथ हंसी वाला इमोजी भेज कर तुम्हें लगता था कि वह सम्भल जाएगा
सम्भला नहीं तो क्या हुआ
अच्छा आदमी है समझ जाएगा
पर वो तुम्हारी चीजों को पढ़कर सोचता था
कि एक मेरे पास ही हंसने की हसरत क्यों नहीं है
इस जिंदगी में मेरे सिवा ही किसी को मेरी जरूरत क्यों नहीं है
जरूरत है.. काश कि उसे एहसास दिला दिया होता
काश कि उसे एहसास दिला दिया होता
बिना वजह गले लगा कर पास बैठा लिया होता
काश के जानते कि हर रोज वह जानबूझकर बिना कुछ खाएं बेहोश कैसे हो जाता था
काश की समझते क्यों बोलते बोलते खामोश कैसे हो जाता था
काश की उसके लिए ही उससे लड़ लिया होता उसके घर की दीवारों से ज्यादा उसकी उस डायरी को पढ़ लिया होता
तो जानते कि उसकी आंखों में कोई सपना नहीं था
उसके अपने बहुत थे पर उसका कोई अपना नहीं था
काश की हम में से कोई तो उसके घर पर वक्त पर पहुंचा होता
तो उसने उस दवाई की शीशी को खोलने से पहले कुछ तो सोचा होता

-Rakesh Tiwari

वसीम बरेलवी की शायरी

वसीम बरेलवी (Wasim Barelvi ) : वसीम बरेलवी उर्दू के मशहूर शायर हैं. वसीम बरेलवी ने अपनी शायरी में प्यार के हर जज्बात को बेहद खूबसूरत ढंग से उकेरा है. उनकी शायरी में प्यार, तड़प, जफा और वफ़ा के सारे रंग मिलते हैं. उनके शेर इतने खूबसूरत होते हैं कि आप आसानी से उनके जरिए अपने दिल की बात कह सकते हैं. वसीम बरेलवी की कुछ प्रमुख कृतियां हैं- आँखों आँखों रहे, मौसम अन्दर-बाहर के, तबस्सुमे-ग़म, आँसू मेरे दामन तेरा, मिजाज़, मेरा क्या. आज हम कविताकोश के साभार से आपके लिए लाए हैं वसीम बरेलवी की चुनिंदा शायरी...
1.मुहब्बतों के दिनों की यही ख़राबी है
मुहब्बतों के दिनों की यही ख़राबी है
ये रूठ जाएँ तो फिर लौटकर नहीं आते
जिन्हें सलीका है तहज़ीब-ए-ग़म समझने का
उन्हीं के रोने में आँसू नज़र नहीं आते
ख़ुशी की आँख में आँसू की भी जगह रखना
बुरे ज़माने कभी पूछकर नहीं आते
बिसाते -इश्क पे बढ़ना किसे नहीं आता
यह और बात कि बचने के घर नहीं आते
'वसीम' जहन बनाते हैं तो वही अख़बार
जो ले के एक भी अच्छी ख़बर नहीं आते.
कितना दुश्वार है दुनिया ये हुनर आना भी...
कितना दुश्वार है दुनिया ये हुनर आना भी
तुझी से फ़ासला रखना तुझे अपनाना भी
ऐसे रिश्ते का भरम रखना बहुत मुश्किल है
तेरा होना भी नहीं और तेरा कहलाना भी.
2.उसूलों पे जहाँ आँच आये ...
उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है
जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है
नई उम्रों की ख़ुदमुख़्तारियों को कौन समझाये
कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है
थके हारे परिन्दे जब बसेरे के लिये लौटें
सलीक़ामन्द शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है
बहुत बेबाक आँखों में त'अल्लुक़ टिक नहीं पाता
मुहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है
सलीक़ा ही नहीं शायद उसे महसूस करने का
जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है
मेरे होठों पे अपनी प्यास रख दो और फिर सोचो
कि इस के बाद भी दुनिया में कुछ पाना ज़रूरी है.
3.मैं इस उम्मीद पे डूबा कि तू बचा लेगा...
मैं इस उम्मीद पे डूबा के तू बचा लेगा
अब इसके बाद मेरा इम्तेहान क्या लेगा
ये एक मेला है वादा किसी से क्या लेगा
ढलेगा दिन तो हर एक अपना रास्ता लेगा
मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगा
कोई चराग़ नहीं हूँ जो फिर जला लेगा
कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिए
जो बे-अमल है वो बदला किसी से क्या लेगा
मैं उसका हो नहीं सकता बता न देना उसे
सुनेगा तो लकीरें हाथ की अपनी जला लेगा
हज़ार तोड़ के आ जाऊँ उस से रिश्ता वसीम
मैं जानता हूँ वो जब चाहेगा बुला लेगा.
4.कही सुनी पे बहुत एतबार करने लगे...
कही-सुनी पे बहुत एतबार करने लगे
मेरे ही लोग मुझे संगसार करने लगे
पुराने लोगों के दिल भी हैं ख़ुशबुओं की तरह
ज़रा किसी से मिले, एतबार करने लगे
नए ज़माने से आँखें नहीं मिला पाये
तो लोग गुज़रे ज़माने से प्यार करने लगे
कोई इशारा, दिलासा न कोई वादा मगर
जब आई शाम तेरा इंतज़ार करने लगे
हमारी सादा -मिजाज़ी की दाद दे कि तुझे
बग़ैर परखे तेरा एतबार करने लगे.
5.मैं अपने ख़्वाब से बिछ्ड़ा नज़र नहीं आता...
मैं अपने ख़्वाब से बिछ्ड़ा नज़र नहीं आता
तू इस सदी में अकेला नज़र नहीं आता
अजब दबाव है इन बाहरी हवाओं का
घरों का बोझ भी उठता नज़र नहीं आता
मैं इक सदा पे हमेशा को घर छोड़ आया
मगर पुकारने वाला नज़र नहीं आता
मैं तेरी राह से हटने को हट गया लेकिन
मुझे तो कोई भी रस्ता नज़र नहीं आता
धुआँ भरा है यहाँ तो सभी की आँखों में
किसी को घर मेरा जलता नज़र नहीं आता.


Gulabi chudiyan by Nagarjun

Vaidyanath Mishra (30 June 1911 - 5 November 1998), better known by his pen name Nagarjun, was a Hindi and maithili poet.


प्राइवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ,

सात साल की बच्ची का पिता तो है!

सामने गियर से उपर
हुक से लटका रक्खी हैं
काँच की चार चूड़ियाँ गुलाबी
बस की रफ़्तार के मुताबिक
हिलती रहती हैं…

झुककर मैंने पूछ लिया
खा गया मानो झटका
अधेड़ उम्र का मुच्छड़ रोबीला चेहरा
आहिस्ते से बोला: हाँ साब

लाख कहता हूँ नहीं मानती मुनिया
टाँगे हुए है कई दिनों से
अपनी अमानत
यहाँ अब्बा की नज़रों के सामने
मैं भी सोचता हूँ

क्या बिगाड़ती हैं चूड़ियाँ
किस ज़ुर्म पे हटा दूँ इनको यहाँ से?
और ड्राइवर ने एक नज़र मुझे देखा
और मैंने एक नज़र उसे देखा।

छलक रहा था दूधिया वात्सल्य बड़ी-बड़ी आँखों में
तरलता हावी थी सीधे-साधे प्रश्न पर
और अब वे निगाहें फिर से हो गईं सड़क की ओर
और मैंने झुककर कहा -

हाँ भाई, मैं भी पिता हूँ
वो तो बस यूँ ही पूछ लिया आपसे
वर्ना किसे नहीं भाएँगी?
नन्हीं कलाइयों की गुलाबी चूड़ियाँ!
--नागार्जुन

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है |
सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है |
माला बिखर गयी तो क्या है
खुद ही हल हो गयी समस्या
आँसू गर नीलाम हुए तो
समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज़ सिलाने वालों
कुछ दीपों के बुझ जाने से, आँगन नहीं मरा करता

Gopal das "Neeraj"

खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चाँदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों, चाल बदलकर जाने वालों
चँद खिलौनों के खोने से, बचपन नहीं मरा करता है |
लाखों बार गगरियाँ फ़ूटी,
शिकन न आयी पर पनघट पर
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं,
चहल पहल वो ही है तट पर
तम की उमर बढ़ाने वालों, लौ की आयु घटाने वालों,
लाख करे पतझड़ कोशिश पर, उपवन नहीं मरा करता है।
लूट लिया माली ने उपवन,
लुटी ना लेकिन गंध फ़ूल की
तूफ़ानों ने तक छेड़ा पर,
खिड़की बंद ना हुई धूल की
नफ़रत गले लगाने वालों, सब पर धूल उड़ाने वालों
कुछ मुखड़ों के की नाराज़ी से, दर्पण नहीं मरा करता है।

- गोपालदास "नीरज" (Gopaldas Neeraj)


चढ़दे सूरज ढलदे देखे बुझदे दीवे बलदे देखे~. बुल्लेशाह

  चढ़दे सूरज ढलदे देखे बुझदे दीवे बलदे देखे~. बुल्लेशाह “चढ़दे सूरज ढलदे देखे बुझदे दीवे बलदे देखे हीरे दा कोइ मुल ना जाणे खोटे सिक्के चलदे ...