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और 'फ़राज़' चाहिएँ कितनी मोहब्बतें तुझे , ahmad faraz

 Ahmad faraz shayari





और 'फ़राज़' चाहिएँ कितनी मोहब्बतें तुझे 

माओं ने तेरे नाम पर बच्चों का नाम रख दिया 

                                               - Ahmad faraz

मैं आईना हूँ मुझे टूटने की आदत है Ahmad faraz

 मैं आईना हूँ मुझे टूटने की आदत है Ahmad faraz




चलो ये इश्क़ नहीं चाहने की आदत है

कि क्या करें हमें दू्सरे की आदत है


तू अपनी शीशा-गरी का हुनर न कर ज़ाया

मैं आईना हूँ मुझे टूटने की आदत है


मैं क्या कहूँ के मुझे सब्र क्यूँ नहीं आता

मैं क्या करूँ के तुझे देखने की आदत है

 


तेरे नसीब में ऐ दिल सदा की महरूमी

न वो सख़ी न तुझे माँगने की आदत है

 


विसाल में भी वो ही है फ़िराक़ का आलम

कि उसको नींद मुझे रत-जगे की आदत है

 


ये मुश्क़िलें हों तो कैसे रास्ते तय हों

मैं ना-सुबूर उसे सोचने की आदत है

 


ये ख़ुद-अज़ियती कब तक "फ़राज़" तू भी उसे

न याद कर कि जिसे भूलने की आदत है

                                               - Ahmad faraz


अहमद फ़राज़ top shayari collection

अहमद फ़राज़ top shayari collection

1.दिल को तिरी चाहत पे भरोसा भी बहुत है 
और तुझ से बिछड़ जाने का डर भी नहीं जाता 

2.तुम तकल्लुफ़ को भी इख़्लास समझते हो 'फ़राज़' 
दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला 

3.आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा 
वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जाएगा 

4.और 'फ़राज़' चाहिएँ कितनी मोहब्बतें तुझे 
माओं ने तेरे नाम पर बच्चों का नाम रख दिया 

5.बंदगी हम ने छोड़ दी है 'फ़राज़' 
क्या करें लोग जब ख़ुदा हो जाएँ 

6.अब दिल की तमन्ना है तो ऐ काश यही हो 
आँसू की जगह आँख से हसरत निकल आए 

7.न मंज़िलों को न हम रहगुज़र को देखते हैं 
अजब सफ़र है कि बस हम-सफ़र को देखते हैं 

8.याद आई है तो फिर टूट के याद आई है 
कोई गुज़री हुई मंज़िल कोई भूली हुई दोस्त 

9.शहर-वालों की मोहब्बत का मैं क़ाएल हूँ मगर 
मैं ने जिस हाथ को चूमा वही ख़ंजर निकला 

10.हम-सफ़र चाहिए हुजूम नहीं 
इक मुसाफ़िर भी क़ाफ़िला है मुझे 

11.ये दिल का दर्द तो उम्रों का रोग है प्यारे 
सो जाए भी तो पहर दो पहर को जाता है 

12.तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है 
ये जानता हूँ मगर थोड़ी दूर साथ चलो 

13.भरी बहार में इक शाख़ पर खिला है गुलाब 
कि जैसे तू ने हथेली पे गाल रक्खा है 

14.जो ज़हर पी चुका हूँ तुम्हीं ने मुझे दिया 
अब तुम तो ज़िंदगी की दुआएँ मुझे न दो 

15.तू ख़ुदा है न मिरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा 
दोनों इंसाँ हैं तो क्यूँ इतने हिजाबों में मिलें 

16.तुझ से मिल कर तो ये लगता है कि ऐ अजनबी दोस्त 
तू मिरी पहली मोहब्बत थी मिरी आख़िरी दोस्त 

17.मुन्सिफ़ हो अगर तुम तो कब इंसाफ़ करोगे 
मुजरिम हैं अगर हम तो सज़ा क्यूँ नहीं देते 

18.हम तिरे शौक़ में यूँ ख़ुद को गँवा बैठे हैं 
जैसे बच्चे किसी त्यौहार में गुम हो जाएँ 

19.अभी तो जाग रहे हैं चराग़ राहों के 
अभी है दूर सहर थोड़ी दूर साथ चलो 

20.जिस से ये तबीअत बड़ी मुश्किल से लगी थी 
देखा तो वो तस्वीर हर इक दिल से लगी थी 

21.दिल का दुख जाना तो दिल का मसअला है पर हमें 
उस का हँस देना हमारे हाल पर अच्छा लगा 

भली सी एक शक्ल थी | अहमद फ़राज़

भली सी एक शक्ल थी


भले दिनों की बात है भली सी एक शक्ल थी न ये कि हुस्न-ए-ताम हो न देखने में आम सी न ये कि वो चले तो कहकशाँ सी रहगुज़र लगे मगर वो साथ हो तो फिर भला भला सफ़र लगे कोई भी रुत हो उस की छब फ़ज़ा का रंग-रूप थी वो गर्मियों की छाँव थी वो सर्दियों की धूप थी न मुद्दतों जुदा रहे न साथ सुब्ह-ओ-शाम हो न रिश्ता-ए-वफ़ा पे ज़िद न ये कि इज़्न-ए-आम हो न ऐसी ख़ुश-लिबासियाँ कि सादगी गिला करे न इतनी बे-तकल्लुफ़ी कि आइना हया करे

न इख़्तिलात में वो रम कि बद-मज़ा हों ख़्वाहिशें न इस क़दर सुपुर्दगी कि ज़च करें नवाज़िशें न आशिक़ी जुनून की कि ज़िंदगी अज़ाब हो न इस क़दर कठोर-पन कि दोस्ती ख़राब हो कभी तो बात भी ख़फ़ी कभी सुकूत भी सुख़न कभी तो किश्त-ए-ज़ाफ़राँ कभी उदासियों का बन सुना है एक उम्र है मुआमलात-ए-दिल की भी विसाल-ए-जाँ-फ़ज़ा तो क्या
फ़िराक़-ए-जाँ-गुसिल की भी

सो एक रोज़ क्या हुआ वफ़ा पे बहस छिड़ गई मैं इश्क़ को अमर कहूँ वो मेरी ज़िद से चिड़ गई मैं इश्क़ का असीर था वो इश्क़ को क़फ़स कहे कि उम्र भर के साथ को वो बद-तर-अज़-हवस कहे शजर हजर नहीं कि हम हमेशा पा-ब-गिल रहें न ढोर हैं कि रस्सियाँ गले में मुस्तक़िल रहें मोहब्बतों की वुसअतें हमारे दस्त-ओ-पा में हैं बस एक दर से निस्बतें सगान-ए-बा-वफ़ा में हैं

मैं कोई पेंटिंग नहीं कि इक फ़्रेम में रहूँ वही जो मन का मीत हो उसी के प्रेम में रहूँ तुम्हारी सोच जो भी हो मैं उस मिज़ाज की नहीं मुझे वफ़ा से बैर है ये बात आज की नहीं न उस को मुझ पे मान था न मुझ को उस पे ज़ोम ही जो अहद ही कोई न हो तो क्या ग़म-ए-शिकस्तगी सो अपना अपना रास्ता हँसी-ख़ुशी बदल दिया वो अपनी राह चल पड़ी मैं अपनी राह चल दिया

भली सी एक शक्ल थी भली सी उस की दोस्ती अब उस की याद रात दिन नहीं, मगर कभी कभी

तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चराग़..|| अहमद फ़राज़।।


तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चराग़

तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चराग़ लोग क्या सादा हैं सूरज को दिखाते हैं चराग़ अपनी महरूमी के एहसास से शर्मिंदा हैं ख़ुद नहीं रखते तो औरों के बुझाते हैं चराग़ बस्तियाँ दूर हुई जाती हैं रफ़्ता रफ़्ता दम-ब-दम आँखों से छुपते चले जाते हैं चराग़ क्या ख़बर उन को कि दामन भी भड़क उठते हैं जो ज़माने की हवाओं से बचाते हैं चराग़ गो सियह-बख़्त हैं हम लोग पे रौशन है ज़मीर ख़ुद अंधेरे में हैं दुनिया को दिखाते हैं चराग़ बस्तियाँ चाँद सितारों की बसाने वालो कुर्रा-ए-अर्ज़ पे बुझते चले जाते हैं चराग़ ऐसे बेदर्द हुए हम भी कि अब गुलशन पर बर्क़ गिरती है तो ज़िंदाँ में जलाते हैं चराग़ ऐसी तारीकियाँ आँखों में बसी हैं कि 'फ़राज़' रात तो रात है हम दिन को जलाते हैं चराग़..

चढ़दे सूरज ढलदे देखे बुझदे दीवे बलदे देखे~. बुल्लेशाह

  चढ़दे सूरज ढलदे देखे बुझदे दीवे बलदे देखे~. बुल्लेशाह “चढ़दे सूरज ढलदे देखे बुझदे दीवे बलदे देखे हीरे दा कोइ मुल ना जाणे खोटे सिक्के चलदे ...