मैं आईना हूँ मुझे टूटने की आदत है Ahmad faraz

 मैं आईना हूँ मुझे टूटने की आदत है Ahmad faraz




चलो ये इश्क़ नहीं चाहने की आदत है

कि क्या करें हमें दू्सरे की आदत है


तू अपनी शीशा-गरी का हुनर न कर ज़ाया

मैं आईना हूँ मुझे टूटने की आदत है


मैं क्या कहूँ के मुझे सब्र क्यूँ नहीं आता

मैं क्या करूँ के तुझे देखने की आदत है

 


तेरे नसीब में ऐ दिल सदा की महरूमी

न वो सख़ी न तुझे माँगने की आदत है

 


विसाल में भी वो ही है फ़िराक़ का आलम

कि उसको नींद मुझे रत-जगे की आदत है

 


ये मुश्क़िलें हों तो कैसे रास्ते तय हों

मैं ना-सुबूर उसे सोचने की आदत है

 


ये ख़ुद-अज़ियती कब तक "फ़राज़" तू भी उसे

न याद कर कि जिसे भूलने की आदत है

                                               - Ahmad faraz


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